शाहीन की परवाज़ पे सय्याद के
पहरे हैं !
कितनी दूर अभी भी रिहाई के सबेरे
हैं !!
गुलामी औ असीरी "तन्हा"
काटी कफ़स में !
अहले-जहाँ के फिर क्यूँ बेनूर
से चेहरे हैं !!
तवक्क़ो मिट गई अपनी देख हविश-ए-आदम
!
स्याह को मात करते हुये कैसे
ये अन्धेरे हैं !!
चन्द गुलों से हैं लिपटे खार
बेहिसाब याँ !
गुलों के दावेदार कहते तेरे हैं
न ये मेरे हैं !!
बता "तन्हा"तूने कफ़स
में देखे थे ख्वाब जो !
मुक़म्मल का जामः डाले क्या ये
ख्वाब तेरे है !!
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" तन्हा
" चारू !!
सर्वाधिकार सुरक्षित © अम्बुज
कुमार खरे " तन्हा
" चारू !!
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