अपनी आँखों का समन्दर पिया है मैंने !
दाग दामन में नहीं दिल पे लिया है मैंने !!
खामोश मोहब्बत को दम तोड़ने भी दो !
ये जुर्म कुछ ऐसा संगीन किया है मैंने !!
क्या लेगा वो और भी इम्तिहान मेरा !
दिल; जिगर; जाँ सब ही दिया है मैंने !!
फिक्र-ए-यार से जी का उकताना कैसा !
हर उस लम्हे को दिल में सिया है मैंने !!
मौत भी मुझसे मुत्मईन हो गई तन्हा !
ज़िन्दगी इस सलीक़े से जिया है मैंने !!
- " तन्हा " !!
12-09-2015
apni aakhon ka samandar piya hai maine !
dag damn me nahi dil par liya hai maine !!
khamosh mohabbat ko dam todne bhi do !
ya zurm kuch aisa sangeen kiya hai maine !!
kya lega wo or bhi imtehaan mera !
dil ; jigar ; jaan sab hi diya hai maine !!
fikr-e-yaar se jee ka uktana kaisa !
har us lamhe ko dil me siya hai maine !!
maut bhi mujhse mutmaeen ho gai tanha !
zindgi is saleeke se jiya hai maine !!
- " tanha " !!
12-09-2015
तन्हा इंसान तन्हाई के आलम पर एक तन्हा लफ़्ज़ों की चादर दाल देता है और जब सहमता-सिकुड़ता कोई और तन्हा इंसान उसे ओड़ लेता है तो वो ठिठुरने लग जाता है- बेहद ख़ामोशी से सलीके से आपने ये ख़ूबसूरत कविता लिखी मगर तन्हाई ने उसे एक विधवा की सूनी मांग सा बना दिया जो दर्द देता है...माफ़ कीजियेगा दवा की तलाश में लोग आयेंगे तो और बीमार न हो जायेंगे ? घावों को हरा रखना क्या ठीक है ?
ReplyDeleteशालिनी जी ! धन्यवाद जो आपने अपने विचारों से परिचित कराया !
Deleteदर्द भी क्या दर्द "तन्हा" जो धुँआ हो जाये !
मेरी चादर बस मेरे पैरों के बराबर हो जाये !!
कौन आता है महफ़िल में दवा की ख़ातिर..!
तेरी ख़ातिर मेरा ज़ख्म ही इलाज़ हो जाये !!
- " तन्हा " !!
15-12-2015
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 25 जून 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
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